Sunday, 18 February 2018

जैन विश्वभारती संस्थान के सेमिनार हाॅल में गीता की मानव जीवन में प्रासंगिता विषय पर व्याख्यान का आयोजन

इस युग में सामाजिक नियम-विधान ही ईश्वर-तुल्य हैं


लाडनूँ 17 फरवरी 2018। जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) के सेमिनार हाॅल में शनिवार को गीता की मानव जीवन में प्रासंगिता विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। प्रो. दामोदर शास्त्री ने अपने व्याख्यान में गीता को दिव्य ध्वनि बताते हुये कहा कि हर गीत में ईश्वरीय अंश होता है, चाहे वह किसी भी भाषा का गीत क्यों न हो। उन्होंने जैन, बौद्ध व उपनिषद के वर्णन के अनुसार शब्दब्रह्म व बौद्ध संगति के बारे में बताया और ईश्वर के स्वरूप को रस-स्वरूप बताया तथा कहा कि ईश्वर की वाचिक अभिव्यक्ति सर्वप्रथम हुई थी, इसलिये ईश्वर को गीत कहा गया है। प्रो. शास्त्री ने गीता की अवधारणा में परमेश्वर के वैशिष्ट्य के बारे में बताया कि समस्त मनुष्य मिट्टी के ऐसे खिलौनों सदृश हैं, जिन्हें ईश्वर भीतर बैठा-बैठा रिमोट यानि माया से संचालित करता है। उन्होंने गीता के वर्णाश्रम के बारे में बताया कि ज्ञान का कभी भी पूर्ण उपयोग व्यवहार में संभव नहीं है। वैदिक धर्म में वर्ण व आश्रम द्वारा इन धर्मों का व्यवहारिक रूप से विभाजन किया गया है। इनमें ज्ञान व आचार दोनों मिल जाते हैं तथा ज्ञान के आलोक में आचारण तय होता है।
प्रो. शास्त्री ने गीता में कृष्ण भगवान के विराट् स्वरूप के दर्शन के सम्बंध में बताते हुये कहा कि हर दर्शन में परमेश्वर का स्वरूप अलग-अलग वर्णित है। जैन धर्म का परमात्मा संसार से विरक्त है, लेकिन गीता का परमात्मा सबको देख रहा है और वहीं सबको चलाता भी है। लेकिन जैन दर्शन में भी कृष्ण के विराट् स्वरूप को लिया गया है। धर्मध्यान एवं लोकानुप्रेक्षा यही विराट स्वरूप ही है। उन्होंने अपने व्याख्यान में बताया कि गीता में मुख्य रूप से कर्म, ज्ञान, भक्ति ये तीन मार्ग है, लेकिन तीनों में कर्म करना आवश्यक बताया गया है, क्योंकि कर्म किये बिना कोई नहीं रह सकता। उन्होंने गीता का मुख्य संदेश बताया कि जो भी आपके उपर सार्वजनिक नियम लागू किये हुये हैं, उन्हें मानें। आज के युग में सामाजिक नियम-विधान ही ईश्वर-तुल्य हैं। इन नियमों के अनुसार ही कार्य करें। कर्ता भाव रखने के बजाये नियमों को सर्वोपरि मानें और तटस्थ भाव रखें। कार्यक्रम में विभिन्न शिक्षकों ने गीता और उसके व्यावहारिक दर्शन के सम्बंध में अनेक सवाल पूछे, जिनका समाधान प्रो. शास्त्री ने किया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुये कुलपति प्रो. बच्छराज दूगड़ ने कहा कि गीता किसी न किसी रूप में जीवन से जुड़ी हुई है, इसीलिये इसकी हर बात रूचिकर लगती है। गीता में स्पष्ट संदेश है कि कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो पूर्णतया दोषमुक्त हो और ऐसा भी कोई नहीं है जो पूर्ण रूप से दोषयुक्त हो। कृष्ण और अर्जुन अद्वेत हैं यहां कम्र और कर्ता अद्वेत हो जाते हैं। गीता में कृष्ण का स्पष्ट संदेश है कि स्वधर्म में मोह का समावेश नहीं होना चाहिये। कृष्ण ने अर्जुन को मोह का त्याग करके स्वधर्म की ओर प्रेरित किया था। गीता के उपदेश स्वधर्म पर रहते हुये आगे बढें तो उसमें पुरूषार्थ हो। हम स्वधर्म में प्रतिष्ठित रहते हुये उसी के विकास में लगें और मोह नहीं रखें, तो वह कल्याणकारी होता है। हमें इन ग्रंथों को जीवन से जोड़कर देखना चाहिये। कार्यक्रम में प्रो. आनन्द प्राकश त्रिपाठी, प्रो. अनिल धर, प्रो. रेखा तिवाड़ी, डाॅ. प्रद्युम्न सिंग शेखावत, डाॅ. बिजेन्द्र प्रधान, डाॅ. जुगलकिशोर दाधीच, डाॅ. गिरीराज भोजक, डाॅ. विवेक माहेश्वरी, डाॅ. योगेश जैन, सोनिका जैन आदि उपस्थित रहे। व्याख्यान के समन्वयक डाॅ. सत्यनारायण भारद्वाज ने कार्यक्रम का संचालन किया।

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