राष्ट्रीय कार्यशाला में दिया ‘‘अपरिग्रह परमोधर्म’’ का संदेश
दिनांक: 12.12.2017
लाडनूं
जैन विश्वभारती संस्थान में भारत सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय के तहत 25
नवम्बर से चल रही 21 दिवसीय ‘‘पाण्डुलिपि विज्ञान एवं लिपि विज्ञान विषयक’’
राष्ट्रीय कार्यशाला में मंगलवार को प्रमुख वक्ता के रूप में लखनऊ
विश्वविद्यालय से पधारे प्रो. के.के. थापलियाल ने ब्राह्मी लिपि के
प्रागेतिहासिक काल, एतिहासिक काल, मध्यकाल, आधुनिक काल में ब्राह्मी लिपि
के स्वरूप व लेखन कला के परिवर्तन पर प्रकाश डाला तथा ब्राह्मी की वर्णमाला
के प्रत्येक अक्षर की बनावट का वैज्ञानिक आधार भी बताया।
दिन
के दूसरे सत्र में जैनोलाॅजी विभाग की डाॅ. समणी शशिप्रज्ञा ने अपने
व्यक्तव्य में बताया कि इस संसार में प्रत्येक जीव की उपस्थिति का विशेष
महत्व है, जिसको मैत्री के माध्यम से बताते हुए उन्होंने कहा कि जब तक बदले
की भावना रहती है तब तक मैत्री भाव हो ही नहीं सकता और ना ही ऐसा व्यक्ति
अहिंसक हो सकता है। अतः जीवों के प्रति उदार भाव एवं सजगता ही अहिंसा का
पर्याय है। अपने व्यक्तव्य में समाहित सत्य को उजागर करते हुए उन्होंने जैन
होने का महत्व भी बताया एवं महाभारतकाल के विचार ‘‘अहिंसा परमोधर्म’’ की
तुलना में आचार्य तुलसी के चिन्तन ‘‘परिग्रह परमोधर्म’’ को अधिक श्रेयष्कर
बताते हुए उसकी परिभाषा दी इच्छाओं का सीमांकन करना ही अपरिग्रह है।
डाॅ.
योगेश जैन एवं डाॅ. सत्यनारायण भारद्वाज द्वारा कार्यशाला के प्रत्येक
सत्र की भूमिका को व्यवस्थित रूप से संचालित किया जा रहा है।
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